बुधवार, 25 नवंबर 2015

कार्तिक पूर्णिमा / गंगास्नान के पुण्य पर्व पर विशेष.....

महर्षि वाल्मीकि विरचित 
गंगाष्टक का भावानुवाद 

( टिप्पणी  :  यह भावानुवाद , पवित्र  श्रृंगवेर पुर घाट ,
जनपद प्रयाग की सीढ़ियों पर  जुलाई 1995 में हुआ था।
इस गंगाष्टक में आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने गंगा को
लेकर बड़ी ही मनोहारी, लालित्यपूर्ण एवं  भावमयी  
कल्पनायें की हैं, जिनका कृतज्ञतापूर्वक अनुवाद कर
पुण्यलाभ लेते हुये धन्य होने के लोभ का संवरण
मेरा कवि-मन न कर सका।
मैं इसके लिये उन अनाम पंडित जी का भी कृतज्ञ हूँ,
जिन्हें गंगास्नान करते हुये इसका पाठ करते सुन कर,
मेरे मन में इस भावानुवाद की प्रेरणा जाग्रत हुई | )


अथ श्री गंगाष्टक भावानुवाद

- अरुण मिश्र
 
माता    शैलपुत्री    की   सहज   सपत्नी   तुम,
धरती  का   कंठहार  बन  कर  सुशोभित हो।
स्वर्ग-मार्ग  की  हो तुम  ध्वज-वैजयन्ती मॉ-
भागीरथी !  बस   तुमसे   इतनी   है   प्रार्थना-
 
बसते   हुये   तेरे  तीर,  पीते  हुये   तेरा  नीर,
होते     तरंगित     गंग ,    तेरे   तरंगों   संग।
जपते तव नाम, किये तुझ पर समर्पित दृष्टि,
व्यय   होवे   मॉं !    मेरे   नश्वर    शरीर   का।।
 
मत्त   गजराजों    के    घंटा - रव   से   सभीत -
शत्रु - वनिताओं   से    वन्दित   भूपतियों  से -
श्रेष्ठ ,    तव     तीर-तरु-कोटर-विहंग ,    गंग ;
तव  नर्क-नाशी-नीर-वासी ,  मछली-कछुआ ||
 
कंकण स्वर युक्त, व्यजन  झलती बालाओं से -
शोभित   भूपाल   अन्यत्र  का ,  न  अच्छा है |
सहूँ   जन्म-मरण-क्लेश,  रहूँ   तेरे  आर-पार ,
भले  गज,  अश्व,  वृषभ,  पक्षी  या  सर्प   बनूँ  ||
 
नोचें  भले   काक - गीध ,   खाएं  भले  श्वान-वृन्द ,
देव  -  बालाएं      भले ,     चामर      झलें    नहीं |
धारा-चलित, तटजल-शिथिल, लहरों से आन्दोलित,
भागीरथि !    देखूँगा   कब   अपना   मृत   शरीर।।
 
हरि  के  चरण कमलों  की   नूतन  मृणाल सी है;
माला,  मालती   की   है   मन्मथ  के   भाल  पर।
जय  हो    हे !  विजय-पताका  मोक्ष-लक्ष्मी  की;
कलि-कलंक-नाशिनि,  जाह्नवी ! कर पवित्र हमें।।
 
साल,  सरल,  तरु-तमाल,  वल्लरी-लताच्छादित,
सूर्यताप-रहित, शंख,  कुन्द,  इन्दु  सम उज्ज्वल।
देव -  गंधर्व -  सिद्ध -   किन्नर -   वधू -  स्पर्शित,
स्नान   हेतु   मेरे   नित्य,  निर्मल   गंगा-जल  हो।।
 
चरणों    से   मुरारी    के,   निःसृत   है   मनोहारी,
गंगा  -  वारि ,  शोभित   है   शीश   त्रिपुरारी   के।
ऐसी    पापहारी    मॉ - गंगा   का ,   पुनीत   जल,
तारे   मुझे   और   मेरा  तन - मन   पवित्र   करे।।
 
करती     विदीर्ण     गिरिराज  -   कंदराओं    को ,
बहती  शिलाखंडों  पर  अविरल  गति  से  है  जो;
पाप    हरे ,    सारे     कुकर्मों    का    नाश    करे ,
ऐसी      तरंगमयी      धारा ,     माँ - गंगा     की ||
 
कल-कल   रव   करते,   हरि- पद-रज  धोते हुए ,
सतत   शुभकारी,   गंग-वारि   कर   पवित्र  मुझे ||
                                *
वाल्मीकि - विरचित  यह  शुभप्रद  जो नर नित्य-
गंगाष्टक    पढ़ता    है    ध्यान    धर    प्रभात   में |
कलि-कलुष-रूपी   पंक ,  धो  कर  निज  गात्र  की ,
पाता   है   मोक्ष ;   नहीं  गिरता   भव - सागर   में ||
                            ***
" इति श्री वाल्मीकि -विरचित गंगाष्टक का भावानुवाद संपूर्ण |"
(पूर्वप्रकाशित)

मूल संस्कृत पाठ 

॥ गङ्गाष्टकं श्रीवाल्मिकिविरचितम् ॥

मातः शैलसुता-सपत्नि वसुधा-शृङ्गारहारावलि
स्वर्गारोहण-वैजयन्ति भवतीं भागीरथीं प्रार्थये ।
त्वत्तीरे वसतः त्वदम्बु पिबतस्त्वद्वीचिषु प्रेङ्खतः
त्वन्नाम स्मरतस्त्वदर्पितदृशः स्यान्मे शरीरव्ययः ॥ १॥

त्वत्तीरे तरुकोटरान्तरगतो गङ्गे विहङ्गो परं
त्वन्नीरे नरकान्तकारिणि वरं मत्स्योऽथवा कच्छपः ।
नैवान्यत्र मदान्धसिन्धुरघटासङ्घट्टघण्टारण-
त्कारस्तत्र समस्तवैरिवनिता-लब्धस्तुतिर्भूपतिः ॥ २॥

उक्षा पक्षी तुरग उरगः कोऽपि वा वारणो वाऽ-
वारीणः स्यां जनन-मरण-क्लेशदुःखासहिष्णुः ।
न त्वन्यत्र प्रविरल-रणत्किङ्किणी-क्वाणमित्रं
वारस्त्रीभिश्चमरमरुता वीजितो भूमिपालः ॥ ३॥

काकैर्निष्कुषितं श्वभिः कवलितं गोमायुभिर्लुण्टितं
स्रोतोभिश्चलितं तटाम्बु-लुलितं वीचीभिरान्दोलितम् ।
दिव्यस्त्री-कर-चारुचामर-मरुत्संवीज्यमानः कदा
द्रक्ष्येऽहं परमेश्वरि त्रिपथगे भागीरथी स्वं वपुः ॥ ४॥

अभिनव-बिसवल्ली-पादपद्मस्य विष्णोः
मदन-मथन-मौलेर्मालती-पुष्पमाला ।
जयति जयपताका काप्यसौ मोक्षलक्ष्म्याः
क्षपित-कलिकलङ्का जाह्नवी नः पुनातु ॥ ५॥

एतत्ताल-तमाल-साल-सरलव्यालोल-वल्लीलता-
च्छत्रं सूर्यकर-प्रतापरहितं शङ्खेन्दु-कुन्दोज्ज्वलम् ।
गन्धर्वामर-सिद्ध-किन्नरवधू-तुङ्गस्तनास्पालितं
स्नानाय प्रतिवासरं भवतु मे गाङ्गं जलं निर्मलम् ॥ ६॥

गाङ्गं वारि मनोहारि मुरारि-चरणच्युतम् ।
त्रिपुरारि-शिरश्चारि पापहारि पुनातु माम् ॥ ७॥

पापापहारि दुरितारि तरङ्गधारि
शैलप्रचारि गिरिराज-गुहाविदारि ।
झङ्कारकारि हरिपाद-रजोपहारि
गाङ्गं पुनातु सततं शुभकारि वारि ॥ ८॥

गङ्गाष्टकं पठति यः प्रयतः प्रभाते
वाल्मीकिना विरचितं शुभदं मनुष्यः ।
प्रक्षाल्य गात्र-कलिकल्मष-पङ्क-माशु
मोक्षं लभेत् पतति नैव नरो भवाब्धौ ॥ ९॥

॥ इति वाल्मीकिविरचितं गङ्गाष्टकं सम्पूर्णम् ॥


Valmiki Krutha Gangashtakam


Matha Shaila sutha sapathni, vasudha srungara haravali,
Swargarohana vaijayanthi, bhavatheem bhagiradhee prarthaye,
Thwatheere vasathasthwambhu pibathasthwadweecheeshupremgatha,
Sthwannamma smaratha sthwadarpitha drusa syanmey sareravyaya.1

Thwathere tharu kotanthara gatho gange vihange varam,
Thwanere narakanthakarini varam mathsye adhava kachapa,
Naivanyathra madanda sindhuraghata sanghatta gandaranal,
Karathrastha samastha vairi vanitha labdha sthuthir bhoopathi. 2

Uksha pakshi thuraga uraga kopee vaa varano vaa,
Varinasyam janana marane klesa dukha sahishnu,
Na thwanyathra praviralaranath kangana kwana mishram,
Varasthree bhi scha maramarutha veejithoo bhoomi pala. 3

Kakair nishkushitham swabhi kabaliham gomayubhir lunditham,
Sthrothobhischalitham thatambhu lulitham veechibhir aandolitham,
Divya sthree kara charu chamara maruthsamveejyamana kadha,
Drakshyeham parameshwa tripadhage bhageeathi swam vapu. 4

Abhinava bisavalli pada padmasyasys vishnor,
Madana madhana moularmalathi puspa mala,
Jayath jayapathaa kapyasou moksha lakshmya,
Kshapitha kali kalanga jahnavi na punathu. 5

Ethathala hamalasala saralavyolola valli latha,
Channam sooryakaraprathapa rahitham, sankhendu kundhojjwalam,
Gandharwamara siddha kinnaravadhoothungasthanasphaltham.,
Snanaya prathivasaram bhavathu may gangam jalam nirmalam.6

Gangam vaari manohari murari charanachyutham,
Tripurari siraschari papa hari punathu maam. 7

Paapahari durithari tharangadhari,
Shailaprachari giri raja guha vidhari,
Jjamkara kari har padambuja hari,
Gangam punathu sathatham shubhakari vaari. 8

Gangashtakam padathi ya prayatha prabhathe,
Valmeekina virachitham shubhadham manushya,
Prakshaalya gathra kali kalmasha pakamasu,
Moksham labeth pathathi naiva naro bhavabhdou. 9
                                         *

 

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

छठ पर्व पर विशेष

छठ पर्व की मंगलकामनाएं !


अस्तंगत सूर्य को एक अर्घ्य मेरा भी...
- अरुण मिश्र 
 
अस्तंगत   सूर्य  को   एक  अर्घ्य   मेरा  भी ||

                              दे   रहीं  असंख्य  अर्घ्य, 
                              गंगा      की      ऊर्मियाँ |
                              धरती   पर   जीवन  के -
                              छंद  ,    रचें    रश्मियाँ ||
 
 
चम्पई   उजाला   भी ,  रेशमी   अंधेरा   भी |
अस्तंगत   सूर्य  को   एक  अर्घ्य   मेरा  भी ||

                              ऊर्जित  कर  कण-कण ; 
                              शांत, शमित तेज प्रखर |
                               विहंगों   के  कलरव  में ,
                               स्तुति के  गीत   मुखर ||

ढलता   तो   रात   और  उगे  तो  सवेरा  भी |
अस्तंगत   सूर्य  को   एक  अर्घ्य   मेरा  भी ||

                                 उदय-अस्त की माला 
                                 को   अविरल   फेरता |
                                 सृष्टि - चक्र  - मर्यादा -
                                 मंत्र ,   नित्य   टेरता ||

जीवन उत्थान-पतन,सुख-दुख का फेरा भी |
अस्तंगत   सूर्य  को   एक  अर्घ्य   मेरा  भी ||
                                   *
(पूर्वप्रकाशित) 

बुधवार, 11 नवंबर 2015

ARUN MISHRA, Mahalaxmi Ashtakam



इन्द्रकृत महालक्ष्मी अष्टकम्
का काव्य-भावानुवाद

-अरुण मिश्र. 

तुम्हें प्रणाम महामाया हे ! श्रीपीठ-स्थित, सुरगण-पूजित।
शंख, चक्र औ’ गदा लिये कर,   महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।

नमन तुम्हें  हे गरुड़ारूढ़ा !  कोलासुर के हेतु   भयङ्करि !
देवि !  समस्त पाप  हरती हो;  महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।

हे सर्वज्ञ !  सर्व-वरदे माँ !  सर्व  दुष्ट-जन को  भय  देतीं।
सर्व  दुःख   हर  लेतीं   देवी;    महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।

सिद्धि-बुद्धि सब देने वाली, भोग अरु मोक्ष प्रदायिनि! माता।
मन्त्र-पूत   हे   देवि   सर्वदा !  महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।

तुम आद्यन्त-रहित हो देवी,  आदिशक्ति हो महेश्वरी हो।
प्रकट  और सम्भूत  योग  से;   महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।

स्थूल, सूक्ष्म हो, महारौद्र हो,  महाशक्ति हो, महोदरा हो।
महापापहारिणि    हे   देवी !    महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।

तुम पद्मासन पर संस्थित हो,  हे परब्रह्मस्वरूपिणि देवी!
हे परमेश्वरि !   हे जग-माता !  महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।

श्वेताम्बर   धारे   हो   देवी,     नानालङ्कारों    से   भूषित।
जगत-मात हो, जगत-व्याप्त हो,महालक्ष्मी तुम्हें नमन है।।

                                                *
                                (इतीन्द्रकृतं महालक्ष्म्यष्टकं सम्पूर्णम् )

महात्म्य एवं पाठ-फल  :

महालक्ष्मी-अष्टक स्तुति  यह, जो भी नर पढ़े भक्ति से। 
सर्व सिद्धि उस को मिलती है; सदा राज्य-वैभव है पाता।।

प्रति दिन एक बार जो पढ़ता, महापाप उस के धुल जाते।
जो दो बार नित्य पढ़ता है, होता है धन-धान्य समन्वित।।

तीन बार जो पढ़ता,  उस के   महाशत्रु तक का विनाश हो।
नित्य महालक्ष्मी प्रसन्न हों, वरदायिनि, कल्याणकारिणी।। 

                                               *       



मूल संस्कृत  :

                        इन्द्र उवाच

नमस्तेस्तु  महामाये  श्रीपीठे    सुरपूजिते।
शङ्खचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥

नमस्ते   गरुडारूढे       कोलासुरभयङ्करि।
सर्वपापहरे   देवि     महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥

सर्वज्ञे       सर्ववरदे        सर्वदुष्टभयङ्करि।
सर्वदुःखहरे   देवि    महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥

सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी।
मन्त्रपूते  सदा  देवि  महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥

आद्यन्तरहिते देवि   आद्यशक्तिमहेश्वरि।
योगजे योगसम्भूते   महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥

स्थूलसूक्ष्ममहारौद्रे          महाशक्तिमहोदरे।
महापापहरे     देवि     महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥

पद्मासनस्थिते   देवि     परब्रह्मस्वरूपिणि।
परमेशि       जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥

श्वेताम्बरधरे   देवि        नानालङ्कार् भूषिते।
जगतिस्थते जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोस्तु ते॥

                                   *
      (इतीन्द्रकृतं महालक्ष्म्यष्टकं सम्पूर्णम् )

महालक्ष्म्यष्टकं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिमान्नरः।
सर्वसिद्धिमवाप्नोति   राज्यं प्राप्नोति  सर्वदा॥

एककाले     पठेन्नित्यं       महापापविनाशनम्।
द्विकालं  यः  पठेन्नित्यं  धनधान्यसमन्वितः॥

त्रिकालं   यः   पठेन्नित्यं     महाशत्रुविनाशनम्।
महालक्ष्मीर्भवेन्नित्यं    प्रसन्ना   वरदा    शुभा॥
                           
                                    *

(पुनर्प्रकाशित)
 

सोमवार, 9 नवंबर 2015

ARUN MISHRA, LUCKNOW: DIVYA JYOTI KE SHAT-SHAT NIRJHAR





दिव्य-ज्योति के शत-शत निर्झर... 

 - अरुण मिश्र 
     
ऑगन ,   द्वार ,   देहरी    पर    शुभ,                 
शत - शत  दीप  जलें,  शुचि-सुन्दर।                        
दीप  -  दीप  से,  दिव्य - ज्योति  के-                           
फूट   रहे  हों ,  शत  -  शत    निर्झर।।
   
          जगर  -  मगर   दीपों   की   लौ   में,         
          करें       लक्ष्मी   -   मइय्या      फेरे।       
          डगर  -  डगर  से , नगर -  नगर  से,       
          भागें      सब      दारिद्र्य   -    अँधेरे ।।    

हे   गजवदन!   विनायक!  गणपति!   
मुदित-मगन हों,सब जन-गण-मन।   
निर्मल   बुद्धि-  विवेक - ज्ञान- युत,   
स्वस्थ- सबल  हों,  भारत के  जन।।        

          पर्व    स्वच्छता   का,  प्रकाश   का,       
          स्वच्छ भित्तियां  औ’   घर- ऑगन।       
          आलोकित    हो   जीवन   का   पथ,       
          तन-मन स्वच्छ, स्वच्छ हो चिंतन।।    

धूम  -  धाम ,   फुलझड़ी  -  पटाखे,   
ख़ुशियां,   खील,   बताशे,   लइय्या।   
बच्चों     की     किलकारी  -  ताली,   
करे  दिवाली    ता  -  ता    थइय्या।।
                                    
          धूप   -   दीप  -   नैवेद्य     समर्पित,       
          सजी    आरती    की    है      थाली।       
          ऋद्धि  -  सिद्धि,  श्री सहित विराजें,       
          शुभ  -  मंगलमय     हो    दीवाली।।
                                     *