शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

फिर क्यूँ सन्नाटा.......

पिछली एक पोस्ट में तीन पदों की कुछ छोटी-छोटी
तुकांत रचनाएँ, पदवार क्रमशः ३, ५, ३ के शब्द-विधान
में प्रस्तुत की थीं। उसी क्रम में कुछ और त्रिपदियाँ प्रस्तुत हैं ।        


फिर क्यूँ सन्नाटा.......

- अरुण मिश्र

कैसी अनहोनी हुई।
मौत के थे हाथ लम्बे;
जि़न्दगी बौनी हुई।।


फिर क्यूँ सन्नाटा ?
सन्नाटे का विषम जाल तो,
ध्वनियों ने काटा।।


निर्मित जिनसे चीर।
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर;
करते हमें अधीर।।


चुप धरती, आकाश।
प्रकृति चीन्हती मन का त्रास,
होती साथ उदास।।


तेरा मन है।
रूप, रंग, रस, गन्ध लुटाता,
खिला सुमन है।।

               *


 

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचित श्री यमुनाष्टकम् का भावानुवाद

जगद्गुरु शङ्कराचार्य  की रचनाएँ न केवल भक्ति के
पावन गङ्गा में डुबकी लगवाती हैं अपितु , काव्य के
निर्मल निर्झरणी में काव्य-रसिकों को आनंदमय -स्नान
के लाभ का अवसर भी प्रदान करती हैं ।

मई, २००२ में श्रीमत् शङ्कराचार्य विरचित इस  
यमुनाष्टक का मेरे द्वारा किया गया भावानुवाद
कागजों में कहीं खो गया था जो अचानक कल मिल गया । 
इसे सभी काव्य-रसिकों एवं  'शङ्कर' तथा यमुना-भक्तों 
हेतु प्रस्तुत करने के  लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा हूँ । 
                                                              
                                                                      -अरुण मिश्र   



जय यमुना मैय्या की !








श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचित
श्री यमुनाष्टकम् का भावानुवाद

-अरुण मिश्र

 मुरारि-तन-सुकालिमा  ले नीर में,   विहर रही।
 समक्ष स्वर्ग, तुल्य तृण; त्रिलोक-शोक हर रही।
 कुंज-पुंज कूल के मनोज्ञ;    मद-कलुष  विदा।
 कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।


                मल सकल  विनाशिनी;  सुनीर से  सुपूरिता।
                नंदसुत-सुअंग  संग   पा  के,    राग-रंजिता।
                प्रघोर-पाप-चोरिणी;  सदा प्रवीण;  मुक्तिदा।
                कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।


तरंग के परस से पाप,   प्राणियों  के   हर उठें।
सुभक्ति हेतु तट,  सुभक्त चातकों से भर उठें।
भक्त-रूप     कूल-हंस-सेविता;     सुकामदा।
कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।


                विहार-रास-श्रम  हरे,   समीर धीर  तीर का।
                गिरा  कहाँ बता सके,   सुचारुता  सुनीर का।
                नद-नदी-धरा  पवित्र,   पा  प्रवाह  शुचिप्रदा।
                कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।


 सुश्यामला;   तरंग संग   बालुका से  उर भरे।
 सिंगार,   रश्मि-मंजरी   शरद के चंद्र की करे।
 अर्चना   के    हेतु    चारु-नीरदा;     सुतोषदा।
 कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।


                 रम्य-राधिका-सुअंग-अंगराग    पा    खिले।
                 अंग-संग कान्ह का  न अन्य को,  इसे मिले।
                 निज  प्रवाह   सप्तसिंधु   भेदती,   शुभप्रदा।
                 कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।


कृष्ण-रंग रंगी, ले गोपियों को  भाग्यशालिनी।
राधिका-सुकेश-माल   से    हुई    है   मालिनी।
नारदादि  कृष्ण-भृत्य,    स्नान   करें   सर्वदा।
कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।


                 मंजु-कुंज   खेलते,   सदैव   नंद   के   लला।
                 मल्लिका-कदंब-रेणु से है  तट समुज्जवला।
                 स्नान नर करें, तरें वो भव-उदधि; स्वधामदा।
                 कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।

                                                          *

   (इति श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचित श्री यमुनाष्टकम् का भावानुवाद सम्पूर्ण हुआ।)


मूल संस्कृत पाठ  :


श्रीयमुनाष्टकम् 


































 

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

नाच रसीले मन !

बारिश में भीगी कुछ नन्हीं नन्हीं तीन पदों की तुकांत रचनाएँ,
क्रमशः तीन, पाँच एवं तीन के शब्द-विधान में 











नाच रसीले मन ! 

-अरुण मिश्र

ज़ोश भरे बादल।
टकराते फिरते, दल के दल;
गुँजा  रहे मादल।।
           *
घटा घिरी घनघोर।
करत शोर चहुँ ओर पपिहरा,
दादुर, कोयल, मोर।।
            *
घिर आये बादल।
विरही नयनों से छलका जल;
फिर बिखरा काजल।।
            *
पावस के घन।
रस बरसायें; छूम छनन छन,
नाच, रसीले मन!!
            *
केतिक करूँ  उपाय।
नित टकटकी बाँधि छवि निरखूँ ,
आँखिन  नाहिं समाय।।
            *
चपला घन चमके।
रस संगीत सुनावत बदरा, बरसत
हैं जम के।।
            *
सोंधी धरती महके।
भीग भीग, वन उपवन लहके;
जन जीवन चहके।।
             *