रविवार, 28 अप्रैल 2013

कोई फूटी किरन माह से.....









कोई फूटी किरन माह से....

-अरुण मिश्र.

इक जरा,   इक जरा,   इक  जरा। 
मुस्करा,     मुस्करा,     मुस्करा।।
  
इक तबस्सुम ने, मुझको  किया। 
उम्र   भर  के    लिये,  सिरफिरा।।
  
चाँदनी      खिलखिलाती     रही। 
रात   भर,   पर   कहाँ   जी  भरा।।
  
मेरे     अरमाँ,     मचलते     हुये। 
तेरा     अन्दाज़,     शोख़ी    भरा।।
  
सारी   कोशिश,   धरी   रह  गयी। 
रह    गया    इल्म    सारा,   धरा।।
  
जितना   ही    हम   छुपाते   गये। 
उतना    खुलता   गया,   माज़रा।।
  
पुतलियाँ    हौले   से   हँस   उठीं। 
लब  थिरक  कर,  खिंचे  हैं  जरा।।
  
कोई     फूटी   किरन,   माह   से। 
कोई    झरना,    कहीं   पे    झरा।।
  
काश !  टूटे   कभी  न,   ‘अरुन’। 
इन    तिलिस्मात   का,   दायरा।। 
                                *

रविवार, 21 अप्रैल 2013

हम न बोलेंगे मगर.......

ग़ज़ल 

हम न बोलेंगे मगर .........

-अरुण मिश्र.



हम न बोलेंगे मगर,  फिर भी बुलाओ तो सही। 
यूँ  कि,  हम रूठे हुये,  हमको मनाओ तो सही।।
   
नाज़ो - अंदाज़  के,  सुनते  हैं,  बड़े  रसिया हो। 
मैं  भी तो  जानूँ ,  मेरे  नाज़  उठाओ तो  सही।।
  
बात  छोटी सी  भी,  तुम  दिल पे लगा लेते हो। 
कुछ बड़ी बात न मैं,  दिल से लगाओ तो सही।।
  
हाँ   हमें   हीरों के  कंगन  की,  तमन्ना  तो है। 
तुम हरे काँच  की कुछ चूड़ियाँ  लाओ तो सही।।
  
हम ‘अरुन’ फूलों को, समझेंगे फ़लक के तारे। 
तुम मेरे जूड़े में,  इक गजरा  लगाओ तो सही।। 
                                         *