रविवार, 24 अप्रैल 2011

पृथ्वी दिवस पर विशेष...















आओ  धरती को  बचाएं...

-अरुण मिश्र 


        ऐसी  तहज़ीबो - तरक्की  से   भला  क्या  हासिल  ?
      कि,  जो  इंसान  ही  बन  जाये  ज़मीं का  क़ातिल | 
       तायरो - ज़ानवर   बच  पायेंगे,  न  शज़रो - बसर |
       अगले  सौ  साल  में   होगा  ज़मीं   पे    ये   मंज़र -

दिमाग़   जीते    भले,    रोयेगा,     हारेगा     दिल |
ऐसी  तहज़ीबो - तरक्की  से  भला  क्या  हासिल  ??

       फूल    बाग़ों   में     खिलें,    पेड़ों    पे   पखेरू   हों |
       सांस  तो  ले   सकें,  ताजा  हवा   हो,   खुशबू   हो | 
       नीर नदियों का हो निर्मल कि जिसको पी तो सकें |
       आओ  धरती को  बचाएं कि,  इस पे  जी तो  सकें ||

साफ़   झीलों   में   सुबह,   आफताब   मुँह    धोये |
ज़ुल्म   ऐसा    न  करो   धरती   पे,   धरती   रोये ||
                                          *



मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

फूल को सोचूँ ...

फूल को  सोचूँ ...

 ग़ज़ल  



-अरुण मिश्र 


बारहा  यूँ   भी,  तसव्वुर   में    बहार   आये है।    
फूल को  सोचूँ    तो,  इक चेहरा  उभर आये है।।

     
जब भी सावन में कभी छाये है  कजरारी घटा।    
फिर  वही  ज़ुल्फ,   मेरी  ऑखों में  लहराये है।।


तन सनोवर हुआ, शाखों के लचकने की अदा।    
हाथ गलबहियों की ख़ातिर,  कोई लपकाये है।।

     
जब भी ख़्यालों में  हसीं लब वो ज़रा थिरके हैं।    
पंखरी - पंखरी    फूलों    की,   बिखर  जाये है।।

     
क़ौसरे-ख़ुल्द  है, ऑखें  हैं  कि, मय की झीलें।    
किश्ती-ए-फ़िक्र,  भॅवर  से  कहाँ  बच पाये है।।

     
और  भी  कस के लिपटती  हैं,  शज़र से बेलें।    
जब   बदन   बादे-बहारी   से,  सिहर  जाये है।।

     
कभी आहिस्ता, कभी तेज, धड़कता है  दिल।    
चाल शोख़ी भरी, इस कल को भी भरमाये है।।

         
उस सबुकसैर के पा किब्लानुमा,मन है मुरीद।    
वो  जिधर जायें,  मेरा मन भी, उधर जाये है।।

         
कातती सूत कभी,  चॉद में बुढ़िया  न दिखी।    
चॉद दुल्हन  सा  सदा,  बदली  में शरमाये है।।

     
मुश्क़ हो,  इश्क़ हो,   ख़ुश्बू  के नाम  हैं  सारे।    
यार हो,  रब हो,  लगन जिसमें,  वही पाये है।।

     
ये चटख़ रंग 'अरुन’ और ये शोख़ी, ये उड़ान।    
तितली-तितली,उसी महबूब के,गुन गाये है।।
                                 *

रविवार, 10 अप्रैल 2011

दर्दे-दिल से जो घबराइए...


ग़ज़ल 
-अरुण मिश्र.

( टिप्पणी : आडिओ क्लिप में, इस ग़ज़ल को स्वर दिया है शकील मियां ने
एवं संगीत रचना उस्ताद जमील रामपुरी की है| रिकार्डिंग वर्ष २००३ की है| )

दर्दे-दिल से जो घबराइये।  
जाइये तो कहाँ जाइये।।
 
कोई साया घना खोजिये।  
या इधर मेरे पास आइये।।
 
आशिक़ी में ये तहज़ीब है।  
मुस्करा कर जहर खाइये।।
 
कुछ न आते , न जाते बने।  
यूँ कहे वो कि, आ-जाइये।।
 
है ग़मे-इश्क़ का क्या इलाज।  
पालिये , और पछताइये।।
 
कुछ दवायें न कामआयेंगी।  
अब दुआओं पे दिल लाइये।।
 
बस के आँखों में जी न भरे।  
तो दिलों में उतर जाइये।।
 
है ‘अरुन’ ये ग़ज़ल प्यार की।  
नाज़ुकी से इसे गाइये।।  
* 
 






सोमवार, 4 अप्रैल 2011

नव-संवत्सर की हार्दिक शुभकामनायें !




















"जीवन में फिर से रस घोले, जीवन जीने का उछाह हो|
 नव-संवत्सर नई ख़ुशी दे, जीवन में  कुछ नई राह हो||"




रश्मि-रेख के सभी अतिथियों, आगंतुकों, शुभचिंतकों, समर्थकों एवं सन्मित्रों को नव-संवत्सर की हार्दिक शुभकामनायें !!!


- अरुण मिश्र.