गुरुवार, 24 मार्च 2011

अंकुर तुम बनो आम्र वृक्ष...

अंकुर तुम बनो आम्र वृक्ष...  




















( टिप्पणी : प्रिय पुत्र चिरंजीव अंकुर  की पहली 
  वर्ष गाँठ पर लिखी यह कविता, आज उसके 
  जन्म दिवस पर ब्लागार्पित कर रहा हूँ | यह 
  आशीर्वाद हर पिता की ओर से,हर पुत्र को मिले | 
  मेरे काव्य संग्रह 'अंजलि भर भाव के प्रसून ' से 
  साभार |  - अरुण मिश्र.)


- अरुण मिश्र 






















































 
              



 ***

रविवार, 20 मार्च 2011

चलो रे! खेलें फाग; होली है...

चलो रे! खेलें फाग; होली है... 


-अरुण  मिश्र 
   
चलो रे! खेलें फाग; होली है।
          
          सगरो  ब्रज में,  धूम  मची है;
          लोक-लाज, कछु नाय बची है;

इत राधा,सखियन संग निकसीं,
उत, नंदलाल  की  टोली  है।
चलो रे! खेलें फाग; होली है।।
 
              नव  वसंत   कै,  बाजै   नूपुर;
         लहरै  सरजू, उमगै  अवधपुर;
 
चलीं सीय, सखियन संग उतहीं,
जित, रघुवीर  की  टोली  है।
चलो रे! खेलें फाग; होली है।।
 
          धूम मची, कैलास-सिखर पर,
        नाचें  सिव-गनेस, डमरू-स्वर
 
सुनि गौरा, सखियन संग धाईं,
बम-भोले की भागी, टोली है।
चलो रे! खेलें फाग; होली है।। 
                                   *

शनिवार, 19 मार्च 2011

होरी की भोर में नन्द-किसोर ने...




कवित्त

-अरुण मिश्र 

होरी की भोर में, नन्द-किसोर ने, 
लाग्यो है  कीन्ही, बिसेस तयारी।
झोरी   अबीर   की,   कॉधे   धरी, 
अरु  हाथ लई है,  नई पिचकारी।
पातन बीच  लुकाइ के, घात सों, 
गोरी  पे,  रंग  की  धार  जु डारी।
कॉकरि  मारी,  न  गागरि फोरी, 
अचंभित राधा, भिजी कत सारी।।
                    * 





शुक्रवार, 18 मार्च 2011

झूम उठ्यो सगरो ब्रज मंडल...



कवित्त 

-अरुण मिश्र 

झूम  उठ्यो  सगरो  ब्रज  मंडल, 
होरी  कै  धूम - धमाल  भयो  है।
कारे-कन्हैया   पे   दूजो   है  रंग  
चढ़्यो, यहु खूब कमाल भयो है।
राधा  के   रंग  में   स्याम   रंगे, 
अरु राधेहु कै अस हाल  भयो है।
कान्हा  के  हाथ   लगे  न  अबै, 
तबहूँ  कस गाल गुलाल भयो है।।
                    *

गुरुवार, 17 मार्च 2011

हे री! सखी...




कवित्त

-अरुण  मिश्र

हे री! सखी, इन ऑखिन सम्मुख, 
होरी  तो,   सोरह  साल   जर्-यो है। 
पै री! सखी, यहि बार की होरी,न 
पूछौ  कुछौ, जस  हाल   कर्-यो है।
चैन उड़्यो दिन कौ,निसि नींद न, 
ऑखिन  डोरो  जु  लाल  पर्-यो है।
पूछैं  सबै,  तौ  बहानो  करौं, उड़ि 
ऑखिन  आय  गुलाल   पर्-यो है।।
                    *

रविवार, 13 मार्च 2011

फागुन रितु आई रे!














फागुन रितु आई रे!
-अरुण मिश्र

आई  रे!  फागुन रितु  आई रे!
पोर - पोर में , अंग - अंग में,
किस अनंग ने, अलख  जगाई रे!

        फूली   सरसों , फूली  अरहर।   
        बौरे  बाग , आम के  मनहर।   
        दहके   टेसू , महके   महुआ।   
        चली फगुनहट स-र-र-र सरसर।।
 
नव वसन्त ने  ली  अँगड़ाई रे!
आई  रे!  फागुन रितु  आई रे!

        गेहूँ   -  जौ   झूमें    गदराये।               
        चना - मटर सब  लट छितराये।               
        अल्हड़  फलियां   बाट  जोहतीं,               
        किस  पाहुन का, सुधि बिसराये??
    
होली   बजा  रही  शहनाई रे!   
आई  रे!  फागुन रितु  आई रे!

        अवध - वीथिकायें, ब्रज-गलियां।       
        मना रहीं  निसि-दिन, रंगरलियां।       
        राम - श्याम, दुइ भ्रमर गुंजरत,       
        खेलत, हॅसत, खिलावत कलियां।।
     
भारत  भर में, धूम  मचाई  रे!
आई  रे!  फागुन रितु  आई रे!
                       *

कविता / फाल्गुन पूर्णिमा, २००४

शनिवार, 12 मार्च 2011

मैं होली में आऊँगा...













ग़ज़ल 
-अरुण मिश्र 


टिप्पणी : होली की मस्ती भरी वर्ष १९९४ में लिखी यह ग़ज़ल, आने वाली होली की 
शुभकामनाओं के साथ ब्लागार्पित है | रंगों एवं मस्तियों का यह त्यौहार सभी को 
बहुत-बहुत शुभ हो | 
- अरुण मिश्र.









































                     




बुधवार, 2 मार्च 2011

महाशिवरात्रि पर विशेष


:जटाटवीगलञ्जलप्रवाहपावितस्थले गलेवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग्तुङ्ग्मालिकां :















रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्रम् का भावानुवाद...
        रावणकृत  यह  शिवताण्डव स्तोत्र  न केवल  भक्ति  एवं  भाव के  दृष्टि से अनुपम है
अपितु, काव्य की दृष्टि से भी अद्भुत है। इसकी लयात्मकता, छन्द- प्रवाह,  ध्वनि-सौष्ठव,
अलंकार-छटा,  रस-सृष्टि  एवं  चित्रात्मक संप्रेषणीयता  सब कुछ अत्यन्त आकर्षक एवं
मनोहारी  है।  यह  अप्रतिम  रचना  महामना  रावण  के   विनयशीलता,   पाण्डित्य  एवं
काव्य-लाघव का उत्कृष्ट उदाहरण है।
       अनन्य  भक्ति  की  गंगा,  प्रवहमान  स्वर-ध्वनि  की  यमुना  एवं  उत्कृष्ट काव्य की
सरस्वती की इस त्रिवेणी में अवगाहन के पुण्यलाभ के कृतज्ञतास्वरूप इसके भावानुवाद
का अकिंचन प्रयास किया है। आप भी पुण्यलाभ लें।
      भगवान शिव मेरा एवं समस्त लोक का कल्याण करें।

-अरुण मिश्र.

 ‘‘अथ शिवताण्डवस्तोत्रम्’’


जटा - वन - निःसृत,   गंगजल    के   प्रवाह   से-
पावन     गले,    विशाल     लम्बी     भुजंगमाल।
डम्-डम्-डम्, डम्-डम्-डम्, डमरू-स्वर पर प्रचंड,
करते   जो   तांडव,  वे   शिव  जी,  कल्याण  करें।।


जटा     के     कटाह    में,    वेगमयी    गंग    के,
चंचल   तरंग - लता   से   शोभित   है    मस्तक।
धग् - धग् - धग्  प्रज्ज्वलित पावक  ललाट पर;
बाल - चन्द्र - शेखर  में   प्रतिक्षण  रति  हो मेरी।।


गिरिजा के  विलास हेतु  धारित  शिरोभूषण  से,
भासित  दिशायें देख, प्रमुदित है   मन  जिनका।
जिनकी  सहज  कृपादृष्टि,  काटे  विपत्ति  कठिन,
ऐसे     दिगम्बर    में,    मन    मेरा    रमा    रहे।।


जटा   के   भुजंगो   के   फणों  के   मणियों   की-
पिंगल  प्रभा, दिग्वधुओं  के  मुख   कुंकुम  मले।
स्निग्ध,   मत्त - गज - चर्म - उत्तरीय  धारण  से,
भूतनाथ   शरण,    मन   अद्भुत     विनोद   लहे।।


इन्द्र   आदि   देवों   के   शीश   के   प्रसूनों   की- 
धूलि   से   विधूसर   है,  पाद-पीठिका   जिनकी।
शेष  नाग    की   माला   से     बाँधे  जटा - जूट,
चन्द्रमौलि,  चिरकालिक श्री  का  विस्तार  करें।।


ललाटाग्नि  ज्वाला  के   स्फुलिंग  से   जिसके-
दहे   कामदेव,   और   इन्द्र    नमन   करते   हैं।
चन्द्र की कलाओं से शोभित मस्तिष्क जटिल,
ऐसे  उन्नत  ललाट  शिव  को   मैं   भजता  हूँ ।।

भाल-पट्ट पर कराल,धग-धग-धग जले ज्वाल,
जिसकी    प्रचंडता    में    पंचशर    होम    हुये।
गौरी  के   कुचाग्रों  पर   पत्र - भंग - रचना   के-
एकमेव   शिल्पी,  हो  त्रिलोचन  में   रति  मेरी।।


रात्रि   अमावस्या   की,  घिरे   हों   नवीन  मेघ,
ऐसा   तम,  जिनके   है   कंठ  में   विराजमान।
चन्द्र  और   गंग  की   कलाओं को   शीश  धरे-
जगत्पिता  शिव,  मेरे   श्री  का   विस्तार  करें।।

खिले नील कमलों की,  श्याम वर्ण  हरिणों की,
श्यामलता से  चिह्नित, जिनकी  ग्रीवा  ललाम।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम औरअन्धक का,
उच्छेदन  करते  हुये  शिव  को,  मैं   भजता हूँ।।


मंगलमयी   गौरी    के    कलामंजरी  का   जो-
चखते    रस - माधुर्य,   लोलुप    मधुप     बने।
स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम और अन्धक के,
हैं जो  विनाशक, उन  शिव को  मैं   भजता  हूँ।।


भ्रमित    भुजंगों    के    तीव्र    निःश्वासों    से-
और भी  धधकती  है, भाल  की  कराल अग्नि।
धिमि-धिमि-धिमि मंगल मृदंगों की तुंग ध्वनि-
पर,  प्रचंड  ताण्डवरत्,  शिव जी की  जय होवे।।


पत्तों   की   शैय्या   और    सुन्दर  बिछौनों  में;
सर्प - मणिमाल,   और    पत्थर   में,  रत्नों  में।
तृण  हो  या  कमलनयन  तरुणी; राजा - प्रजा;
सब  में  सम  भाव, सदा  ऐसे  शिव  को  भजूँ।।


गंगा   तट  के   निकुंज - कोटर  में  रहते  हुये,
दुर्मति  से  मुक्त  और   शिर  पर अंजलि  बॉधे।
विह्वल  नेत्रों  में  भर  छवि  ललाम - भाल की,
जपता    शिवमंत्र,   कब    होऊँगा   सुखी   मैं।।


उत्तमोत्तम   इस   स्तुति  को   जो  नर  नित्य,
पढ़ता,   कहता   अथवा    करता   है   स्मरण।
पाता  शिव - भक्ति;  नहीं पाता  गति अन्यथा;
प्राणी   हो  मोहमुक्त,  शंकर   के   चिन्तन  से।।


शिव का कर  पूजन, जो पूजा की  समाप्ति पर,
पढ़ता   प्रदोष    में,   गीत   ये   दशानन   का।
रथ,    गज,    अश्व   से   युक्त,  उसे  अनुकूल,
स्थिर     श्री - सम्पदा,   शंभु    सदा   देते  हैं।।


 “इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
                             *
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