रविवार, 29 अगस्त 2010

जन्माष्टमी पर विशेष

मुक्तक




- अरुण मिश्र


मोहन है , कन्हैया है , नटवर है , श्याम है
हो कर भी परम तत्व, वह हम सब सा आम है
वंशी है उस की, सृष्टि के नव-चेतना का स्वर ;
राधा, जगत में नेह की लीला का नाम है ।।


***

अपने तमाम ऐबों के संग , है वो छबीला।
है काला-कलूटा , मगर है फिर भी रंगीला।
वह 'व्यक्ति में भगवान की है कल्पना सुंदर';
यह कल्पना भी है , उसी भगवान की लीला।।

रविवार, 22 अगस्त 2010

रक्षाबंधन पर विशेष


रक्षा-सूत्र


-अरुण मिश्र

बहन, मेरी कलाई पर,
जो तुमने तार बॉधा है।
तो, इसके साथ स्मृतियों-
का, इक संसार बॉधा है।।

ये धागे सूत के कच्चे।
ये कोमल, रेशमी लच्छे।
दिलाते याद उस घर की,
रहे जिस घर के हम बच्चे।।

इसे बॉधा, तो तुमने,
फिर वही परिवार, बॉधा है।।

बड़ी हो तो, असीसें औ’
दुआयें, बॉधी हैं इसमें।
जो छोटी हो तो, मंगल-
कामनायें बॉधी हैं इसमें ।।

सहज विश्वाश बॉधा है।
परस्पर प्यार बॉधा है।।

सुरक्षित हों सदा भाई।
सदा रक्षित रहे बहना।
ये रक्षा-सूत्र है, इस देश
के, संस्कार का गहना।।

महत् इस पर्व पर, तुमने
अतुल उपहार, बॉधा है।।


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सोमवार, 16 अगस्त 2010

तुलसी जयन्ती पर

चन्द कंवल तुलसी पे...


-अरुण मिश्र


कल्पना-तुलसी के दल, तुलसी पे।
भावना-गंगा का जल, तुलसी पे।।

शब्द-अक्षत के संग, समर्पित हैं।
छन्द के, चन्द कंवल, तुलसी पे।।

है ये श्रद्धा, ढली जो, ’शेरों में।
कौन कहता है ग़ज़ल, तुलसी पे।।

सादगी से कहो, जो बात कहो।
लीजिये इसकी नकल, तुलसी पे।।

ज्ञान, वैराग्य, भक्ति औ’ दर्शन।
किस पहेली का,न हल, तुलसी पे।।

बातें, जो हैं कठिन, किताबों में।
वो लगें, कितनी सहल, तुलसी पे।।

यूँ ही हुलसी नहीं थीं, माँ उनकी।
कौन हुलसे न, अमल तुलसी पे।।

राम तो, खुद ही, खिंचे आये हैं।
एक भौंरे से, कमल तुलसी पे।।

पैठिये आप ‘अरुन’, मानस में।
पाइये राम का बल, तुलसी पे।।



रविवार, 15 अगस्त 2010

ग़ज़ल


कोई शम्मा तो अरुन रौशन करो

- अरुण मिश्र


हँस के झेले, ज़ीस्त के भाले बहुत।
हमने भी काग़ज़ किये काले बहुत।।


सर्फ़ की हमने भी है, कुछ रौशनाई।
और ख़त, ख़ामा के घिस डाले बहुत।।


चप्पा-चप्पा सहरा का है जानता।
क्यूँ हैं मेरे पाँव में छाले बहुत।।


छूट करके फिर फँसा, अक्सर हूँ मैं।
बुनती हैं दुश्वारियाँ, जाले बहुत।।


कोई शम्मा तो ’अरुन’ रौशन करो।
आयेंगे ख़ुद, चाहने वाले बहुत।।



स्वतंत्रता दिवस पर विशेष


नज़्म

चाँद मुबारक

-अरुण मिश्र


तिरसठ बरस पहले,
पन्द्रह अगस्त की शब,
थी रात आधी बाक़ी,
आधी ग़ुज़र चुकी थी।
या शाम से सहर की-
मुश्क़िल तवील दूरी,
तय हो चुकी थी आधी।
ख़त्म हो रहा सफ़र था-
राहों में तीरग़ी के-
औ’, रोशनी की जानिब।।


पन्द्रह अगस्त की शब,
दिल्ली के आसमाँ में,
उस ख़ुशनुमां फ़िज़ाँ में,
इक अजीब चाँद चमका,
रंगीन चाँद चमका।।


थे तीन रंग उसमें-
वो चाँद था तिरंगा।
वे तरह-तरह के रंग थे,
रंग क्या थे वे तरंग थे,
हम हिन्दियों के मन में -
उमगे हुये उमंग थे।
कु़र्बानियों का रंग भी,
अम्नो-अमन का रंग भी,
था मुहब्बतों का रंग भी,
ख़ुशहालियों का रंग भी,
औ’, बुढ़िया के चर्खे़ के-
उस पहिये का निशां भी-
बूढ़े से लेके बच्चे तक-
जिसको जानते हैं।।


पन्द्रह अगस्त की शब,
जब रायसीना के इन-
नन्हीं पहाड़ियों पर-
यह चाँद उगा देखा-
ऊँचे हिमालया ने,
कुछ और हुआ ऊँचा।
गंगों-जमन की छाती-
कुछ और हुई चौड़ी।
औ’, हिन्द महासागर-
में ज्वार उमड़ आया।
बंगाल की खाड़ी से-
सागर तलक अरब के-
ख़ुशियों की लहर फैली,
हर गाँव-शहर फैली।।


पन्द्रह अगस्त की शब,
जब राष्ट्रपति भवन में-
यह चाँद चढ़ा ऊपर,
चढ़ता ही गया ऊपर,
सूरज उतार लाया,
सूरज कि , जिसकी शोहरत-
थी, डूबता नहीं है,
वह डूब गया आधा-
इस चाँद की चमक से।।


पन्द्रह अगस्त की शब,
इस चाँद को निहारा,
जब लाल क़िले ने तो-
ख़ुशियों से झूम उट्ठीं-
बेज़ान दीवारें भी।
पहलू में जामा मस्जिद-
की ऊँची मीनारें भी-
देने लगीं दुआयें।
आने लगी सदायें-
हर ज़र्रे से ग़ोशे से-
ये चाँद मुबारक हो।
इस देश की क़िस्मत का-
ये चाँद मुबारक हो।
इस हिन्द की ताक़त का-
ये चाँद मुबारक हो।
हिन्दोस्ताँ की अज़मत का-
चाँद मुबारक हो।।


रोजे़ की मुश्क़िलों के-
थी बाद, ईद आयी।
क़ुर्बानियाँ शहीदों की-
थीं ये रंग लायीं।
अब फ़र्ज़ है, हमारा-
इसकी करें हिफ़ाज़त,
ता’, ये रहे सलामत-
औ’, कह सकें हमेशा-
हर साल-गिरह पर हम-
ये, एक दूसरे से-
कि, चाँद मुबारक हो-
ये तीन रंग वाला,
हिन्दोस्ताँ की अज़मत का-
चाँद मुबारक हो।
ये चाँद सलामत हो,
ये चाँद मुबारक हो।।






बुधवार, 11 अगस्त 2010

ग़ज़ल



मंदिरों में हों अज़ानें मस्जिदों में घंटियाँ

-अरुण मिश्र

मंदिरों में हों अज़ानें , मस्जिदों में घंटियाँ।

तब मैं मानूँगा कि सचमुच एक हैं अल्ला मियाँ।।


जब कि ये दुनिया सिमट कर,गाँव इक होने को है।
तब ये कैसा बचपना, सबकी अलग हों बस्तियाँ ??


जो न हों देतीं बुलन्दी आपके क़िरदार को।
हो नहीं सकतीं कभी ज़ायज़ हैं, वो पाबन्दियाँ।।


तुम, बनाने वाले की नज़रों से जो देखो ‘अरुन’।
ना तो वो ही म्लेच्छ हैं, ना ये ही हैं काफ़िर मियाँ।।





रविवार, 1 अगस्त 2010

मित्रता दिवस ०१ अगस्त २०१०


A Beautiful Friendship...A Beautiful Friendship...

दोस्त !

- अरुण मिश्र

"
भले ही दुनिया के इस भीड़ भरे मेले में,
हमारी ज़िन्दगी की हों ज़ुदा-ज़ुदा राहें।
हमेशा इन्तज़ार में तेरे मगर दोस्त,
रहेंगी आंखें बिछी और खुली हुई बाहें॥"